गुरु पूर्णिमा : गुरु से मिला मंत्र ही देता है पूर्णता
गुरु पूर्णिमा : जानें गुरु की महिमा...
गुरु पूर्णिमा आत्म-बोध की प्रेरणा का शुभ त्योहार
गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वराः।
गुरुसाक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी गुरु पूर्णिमा आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा 5 जुलाई को है। इसे व्यास पूजा के नाम से भी जाना जाता है। वैसे तो किसी भी तरह का ज्ञान देने वाला गुरु कहलाता है, लेकिन तंत्र-मंत्र-अध्यात्म का ज्ञान देने वाले सद्गुरु कहलाते हैं जिनकी प्राप्ति पिछले जन्मों के कर्मों से ही होती है। दीक्षा प्राप्ति जीवन की आधारशिला है। इससे मनुष्य को दिव्यता तथा चैतन्यता प्राप्त होती है तथा वह अपने जीवन के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच सकता है। दीक्षा आत्मसंस्कार कराती है। दीक्षा प्राप्ति से शिष्य सर्वदोषों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। इसीलिए कहा गया है .....
शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात दो अक्षरों से मिलकर बने गुरु शब्द का अर्थ - प्रथम अक्षर गु का अर्थ- अंधकार होता है जबकि दूसरे अक्षर रु का अर्थ- उसको हटाने वाला होता है।
अर्थात् अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को गुरु कहा जाता है। गुरु वह है जो अज्ञान का निराकरण करता है अथवा गुरु वह है जो धर्म का मार्ग दिखाता है। श्री सद्गुरु आत्म-ज्योति पर पड़े हुए विधान को हटा देता है। गुरु के बारे में कि गुरु का अर्थ है- ऐसी मुक्त हो ठाई चेतनाएं, जो ठीक बुद्ध और कृष्ण जैसी हैं, लेकिन तुम्हारी जगह खड़ी हैं, तुम्हारे पास हैं। कुछ थोड़ा-सा ऋण उनका बाकी है- शरीर का, उसके चुकने की प्रतीक्षा है। बहुत थोड़ा समय है। .गुरु एक पैराडॉक्स है, एक विरोधाभास है : वह तुम्हारे बीच और तुमसे बहुत दूर, वह तुम जैसा और तुम जैसा बिलकुल नहीं,वह कारागृह में और परम स्वतंत्र। गर तुम्हारे पास थोड़ी सी भी समझ हो तो इन थोड़े क्षणों का तुम उपयोग कर लेना, क्योंकि थोड़ी देर और है वह, फिर तुम लाख चिल्लाओगे सदियों-सदियों तक, तो भी तुम उसका उपयोग न कर सकोगे। रामाश्रयी धारा के प्रतिनिधि गोस्वामीजी वाल्मीकि से राम के प्रति कहलवाते हैं कि-
तुम तें अधिक गुरहिं जिय जानी
राम आप तो उस हृदय में वास करें- जहां आपसे भी गुरु के प्रति अधिक श्रद्धा हो। लीलारस के रसिक भी मानते हैं कि उसका दाता सद्गुरु ही है- श्रीकृष्ण तो दान में मिले हैं। सद्गुरु लोक कल्याण के लिए मही पर नित्यावतार है- अन्य अवतार नैमित्तिक हैं।
संत जन कहते हैं
राम कृष्ण सबसे बड़ा उनहूं तो गुरु कीन्ह
तीन लोक के वे धनी गुरु आज्ञा आधीन॥
गुरु तत्व की प्रशंसा तो सभी शास्त्रों ने की है। ईश्वर के अस्तित्व में मतभेद हो सकता है, किन्तु गुरु के लिए कोई मतभेद आज तक उत्पन्न नहीं हो सका। गुरु को सभी ने माना है। प्रत्येक गुरु ने दूसरे गुरुओं को आदर-प्रशंसा एवं पूजा सहित पूर्ण सम्मान दिया है।
भारत के बहुत से संप्रदाय तो केवल गुरुवाणी के आधार पर ही कायम हैं।
_ गुरु ने जो नियम बताए हैं उन नियमों पर श्रद्धा से चलना उस संप्रदाय के शिष्य का परम कर्तव्य है। गुरु का कार्य नैतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं को हल करना भी है। राजा दशरथ के दरबार में गुरु वशिष्ठ से भला कौन परिचित नहीं है, जिनकी सलाह के बगैर दरबार का कोई भी कार्य नहीं होता था। गुरु की भूमिका भारत में केवल आध्यात्म या धार्मिकता तक ही सीमित नहीं रही है, देश पर राजनीतिक विपदा आने पर गुरु ने देश को उचित सलाह देकर विपदा से उबारा भी है। अर्थात् अनादिकाल से गुरु ने शिष्य का हर क्षेत्र में व्यापक एवं समग्रता से मार्गदर्शन किया है। अतः सद्गुरु की ऐसी महिमा के कारण उसका व्यक्तित्व माता-पिता से भी ऊपर है।
भारत में सदियों से गुरु का महत्व रहा है। जीवन विकास के लिए भारतीय संस्कृति में गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका मानी गई है। गुरु की सन्निधि, प्रवचन, आशीर्वाद और अनुग्रह जिसे भी भाग्य से मिल जाए उसका तो जीवन कृतार्थता से भर उठता है, क्योंकि गुरु बिना न आत्म-दर्शन होता और न परमात्म-दर्शन।
गुरु भवसागर पार पाने में नाविक का दायित्व निभाते हैं। वे हितचिंतक, मार्गदर्शक, विकास प्रेरक एवं विघ्न-विनाशक होते हैं। उनका जीवन शिष्य के लिए आदर्श बनता है। उनकी सीख जीवन का उद्देश्य बनती है।
अनुभवी आचार्यों ने भी गुरु की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए लिखा है- गुरु यानी वह अर्हता, जो अंधकार में दीप, समुद्र में द्वीप, मरुस्थल में वृक्ष और हिमखंडों के बीच अग्नि की उपमा को सार्थकता प्रदान कर सके।
आषाढ़ की समाप्ति और श्रावण के आरंभ की संधि को आषाढ़ी पूर्णिमा, व्यास पूर्णिमा अथवा गुरु पूर्णिमा कहते हैं। गुरु पूर्णिमा आत्म-बोध की प्रेरणा का शुभ त्योहार है। यह त्योहार गुरु-शिष्य के आत्मीय संबंधों को सचेतन व्याख्या देता है।
काव्यात्मक भाषा में कहा गया है- गुरु पूर्णिमा के चांद जैसा और शिष्य आषाढ़ी बादल जैसा। गुरु के पास चांद की तरह जीए गए अनुभवों का अक्षय कोष होता है इसीलिए इस दिन गुरु की पूजा की जाती है इसलिए इसे गुरु पूजा दिवस भी कहा जाता है। प्राचीनकाल में विद्यार्थियों से शुल्क नहीं वसूला जाता था अतः वे साल में एक दिन गरु की पूजा करके अपने सामर्थ्य के अनुसार उन्हें दक्षिणा देते थे। महाभारतकाल से पहले यह प्रथा प्रचलित थी लेकिन धीरे-धीरे गुरु-शिष्य संबंधों में बदलाव आ गया। भारतीय संस्कृति में गुरु का बहुत ऊंचा और आदर का स्थान है। माता-पिता के समान गुरु का भी बहुत आदर रहा है और वे शुरू से ही पूज्य समझे जाते रहे हैं। गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश के समान समझकर सम्मान करने की पद्धति परातन है। आचार्य देवो भवः का स्पष्ट अनुदेश भारत की पुनीत परंपरा है और वेद आदि ग्रंथों का अनुपम आदेश है।