4 जुलाई से जैन श्रमण संघ का वर्षायोग चातुर्मास
डॉ. महेन्द्रकुमार जैन मनुज, इन्दौर
भारत में विभिन्न धर्मों के संत महात्माओं की अपनी-अपनी मान्यताओं और धार्मिक विधानों के अनुसार साधना पद्धतियां, अनुष्ठान और निष्ठाएं परिपक्व हुई हैं। इन पद्धतियों में चातुर्मास की परम्परा बड़ी महत्वपूर्ण है। वैदिक परम्परा संतों और बौद्ध परम्परा के संतों में भी चातुर्मास की परम्परा चली आ रही है, परन्तु जैन धर्म में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। जैन परम्परानुसार आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी से चातुर्मास वर्षायोग का प्रारम्भ होता है। और चार माह बाद कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी को चातुर्मास का निष्ठापन होता है।
जैन धर्म में चातुर्मास की परम्परा अत्यंत प्राचीन है। स्वयं श्रमण भगवान महावीर ने अपने जीवन में विभिन्न क्षेत्रों में चातुर्मास किए। उन्होंने अपना अंतिम चातुर्मास पावापुरी में किया था। यहां उन्होंने अपना अंतिम उपदेश तथा देशनाएं दी थीं। । यह सर्वविदित ही है। कि जैन साधुओं का कोई स्थायी ठौर-ठिकाना नहीं होता तथा जनकल्याण की भावना संजोए वे वर्षभर एक स्थल से दूसरे स्थल तक पैदल चल-चलकर श्रावक-श्राविकाओं को अहिंसा, सत्य, अचैर्य, ब्रह्मचर्य आदि का विशेष ज्ञान प्रदान करते हैं।
यह सर्वविदित ही है। कि जैन साधुओं का कोई स्थायी ठौर-ठिकाना नहीं होता तथा जनकल्याण की भावना संजोए वे वर्षभर एकस्थल से दूसरे स्थल तक पैदल चल-चलकर श्रावक-श्राविकाओं को अहिंसा, सत्य, अचर्य, ब्रह्मचर्य आदि का विशेष ज्ञान प्रदान करते हैं।
वर्ष में चार माह वर्षा के दौरान जीवों की उत्पत्ति अत्याधिक होती है। तरह-तरह के कीड़े-मकोड़े,बैक्टीरिया और जीवजंतु इत्यादि पनपते हैं, इसके अलावा, जमीन के अंदर रह रहे मैढक आदि जीव-जंतु धरती के ऊपर आ जाते हैं। ऐसी स्थिति साधु-संतों के पैरों से जाने-अनजाने किसी जंतु की मृत्यु नहीं हो जाए, जीवों की रक्षा व अहिंसा धर्म के पालनार्थ जैन मुनि चार माह पदयात्रा नहीं करते हैं, और एक ही स्थान व नगर में रहकर स्वयं साधना करते हैं तथा श्रावकों को ज्ञान, ध्यान, धर्म लाभ प्रदान करते हैं। साधु-संतों के लिए यह समय संसारी लोगों को सत्संग, प्रवचन और धर्म-कर्म का महत्व समझाने का होता है। स्वयं को पाप से मुक्त करने की कला के जागरण एवं संत समागम के अद्भुत क्षण का नाम है, चातुर्मास। चातुर्मास मन, वचन और शरीर को शुद्ध करने का पर्व है। जैन संत पूरे चातुर्मास अर्थात् 4 महीने तक एक क्षेत्र की मर्यादा में स्थायी रूप से निवासित रहते हए जैन दर्शन के अनुसार मौन साधना, ध्यान, उपवास, स्व अवलोकन की प्रक्रिया, सामायिक और प्रतिक्रमण की विशेष साधना, धार्मिक उद्बोधन, में निरत रहते हैं। वे संस्कार शिविरों से हर शख्स के मन मंदिर में जनकल्याण की भावना जाग्रत करने का सुप्रयास जारी रखते हैं। तीर्थंकरों और सिद्धपुरुषों की जीवनियों से अवगत कराने की प्रक्रिया इस पूरे वर्षावास के दरमियान निरंतर गतिमान रहती है, तथा परिणति सुश्रावकों तथा सुश्राविकाओं के द्वारा अनगिनत उपकार कार्यों के रुप में होती है।
जीवों की रक्षा और संयम-साधना के लिए चार मास तक साधु-साध्वियों को एक स्थान पर रुकने का शास्त्रीय विधान है। अपवाद स्वरुप ही साधु चातुर्मास में अन्यत्र जा सकते हैं। शास्त्रों में उल्लेख है कि संघ पर संकट आने अथवा किसी स्थविर या वृद्ध साधु की सेवा के लिए, महामारी या अकाल पड़ने पर साधु चातुर्मास में दूसरे स्थान पर जा सकता है अन्यथा उसे चातुर्मास में एक स्थान पर रुकने का शास्त्रीय आदेश है। साथ ही जब साधु चातुर्मास वर्षायोग की स्थापना करते हैं, तो वे चारों दिशाओं की दूरी के परिमाण का संकल्प लेते हैं कि वे इतनी दूरी या इस मोहल्ले से अधिक दूर चातुर्मास वर्षायोग में गमन नहीं करेंगे। जीवों की रक्षा और संयम-साधना के लिए चार मास तक साधु-साध्वियों को एक स्थान पर रुकने का शास्त्रीय विधान है। अपवाद स्वरुप ही साधु चातुर्मास में अन्यत्र जा सकते हैं। शास्त्रों में उल्लेख है कि संघ पर संकट आने अथवा किसी स्थविर या वृद्ध साधु की सेवा के लिए, महामारी या अकाल पड़ने पर साधु चातुर्मास में दूसरे स्थान पर जा सकता है, अन्यथा उसे चातुर्मास में एक स्थान पर रुकने का शास्त्रीय आदेश है। साथ ही जब साधु चातुर्मास वर्षायोग की स्थापना करते हैं तो वे चारों दिशाओं की दूरी के परिमाण का संकल्प लेते हैं कि वे इतनी दूरी या इस मोहल्ले से अधिक दूर चातुर्मास वर्षायोग में गमन नहीं करेंगे।
श्रावकों का भी होता है चातुर्मास
चातुर्मास एक क्रांतिकारी समय होता है। यह केवल साधुओं का नहीं बल्कि श्रावकों का भी होता है। ऐसे समय में अलिप्त होने का अभ्यास अपने गुरुओं, मुनियों, साधु-साध्वियों के सान्निध्य में सीखना होता है। पंचाणुव्रतों की पालना से आगे पढ़ते हएमनिराजों के दशलाक्षणिक धर्म की भी कुछ अंशों में अनुपालना का अभ्यास श्रावक इसी समय करता है। औषधि दान, शास्त्रदान, अभय दान और आहार दान की पूर्णता तो श्रावकों को मुनिराजों की सन्निधि के बिना प्राप्त हो ही नहीं सकती। इसमें जहां चतुर्विध संघ अपने व्रतो की सीमाओं में रहकर आत्म विशुद्धि को बढ़ाते हैं। वहीं श्रावक श्री जिनवाणी की आराधना संरक्षण, संवर्धन, के साथ-साथ समाज को धर्म से जोड़कर विश्व कल्याण की भावना में संलग्न रहते हैं। व्यापार भी मंद रहता है। इस काल में जैनों के सर्वाधिक लगभग पाचास व्रत-पर्व आते हैं। दश दिवसीय प्रसिद्ध पर्युषण पर्व भी इसी अवधि में आता है जिसमें मुनिराजों के साथ साथ कुछ श्रावक तो दशों दिनों का उपवास करते हैं।
चातुर्मास जैन परम्परा में साधना का विशेष अवसर माना जाता है। इसलिये इस काल में वे आत्मा से परमात्मा की ओर, वासना से उपासना की ओर, अहं से अर्ह की ओर, आसक्ति से अनासक्ति की ओर, भोग से योग की ओर, हिंसा से अहिंसा की ओर, बाहर से अंदर की ओर आने का प्रयास करते हैं। चातुर्मास धर्मसाधना व आत्मसाधना का सुयोग काल है। चातुर्मास का उद्देश मूलगुणों का निर्दोष पालन, मानसिक स्थिरता, शांतचित्त, राग द्वेष परिनिवृत्ति है।
इस वर्ष का चातुर्मास वर्षायोग कई विशेषतायें लिए हए है।
1. परम्परा से हटकर इसवर्ष का चातुर्मास अलग और कई विशेषतायें लिएहुए है। एक तो कोरोना महामारी संक्रमण के कारण मार्च से लॉकडाउन होने के कारण साधु-संतों का विहार नहीं हो पाया इस कारण अधिकतर साधुजहाँ थे, वहीं हैं और उसी नगर-ग्राम के आसपास ही उनका चातुर्मास वर्षायोग हो रहा है। एक ही स्थान में रुकने के ये तीन माह अतिरिक्त बढ़ गये। इस वर्ष आश्विन अधिक मास है, इसलिए पांच माह का चातुर्मास हुआ। इस तरह इसवर्ष लगभग आठमाह का चातुर्मास होने जा रहा है।
2. इस वर्ष का चातर्मास दुसरी यह विशेषता लिए हए है कि चातुर्मास में बहरंगी पोस्टर मल्टी फ्लैक्स का प्रचलन इधर कुछ वर्षों से अधिक ही बढ़ गया था। करोड़ों रुपये इसी में समाज का अपव्यय होने लगा था। इस वर्ष अधिकतर डिजिटल पोस्टर ही प्रसारित होंगे। क्योंकि जबतक प्रिटिंग का कार्य और डाक-कूरियर व्यवस्थित हो पायेगा जब तक आधा चातुर्मास वर्षायोग निकल चुकेगा।
3. तीसरी विषेषता है कि प्रतिवर्ष साधुओं के चातुर्मास स्थान पर श्रद्धालुओं को आमंत्रित किया जाता था, श्रावक भी इस समय धर्मलाभ हेतु अपने अपने विशिष्ट गुरुओं की सन्निधि प्राप्ति हेतु साधु भगवंतों के चातुर्मास स्थलों पर पहुंचते थे, विशाल शिविर, बृहत् विधान आदि होते थे। इस बार इन सबसे उलट श्रद्धालु स्वयं नहीं जा पा रहे हैं और साधु संघों की ओर से भी श्रद्धालुओं को नहीं आने की हिदायतें दी जा रही हैं। पहले से सूचनायें दी जा चुकी हैं कि फलां मुनिराज कोरोना महामारी से बचाव के कारण श्रावकों को दर्शन नहीं दे रहे हैं अतः बाहर से श्रावक न आये।
इन परिस्थितियों के अनुसार लगता है साधु भगवंतों को यह चातुर्मास परोपकार की अपेक्षा आत्मसाधना के अवसर ज्यादा प्रदान करेगा। वैसे भी जैन शास्त्रों के अनुसार साधु के लिए कहा गया है कि “साधु को आत्महित करना चाहिए, पर हित भी करना चाहिए, किन्तु आत्म हित और परहित दोनों की स्थिति एक साथ उपस्थित हो जाये तो पहले आत्महित करना चाहिए।" इन सब कारणों से इस वर्ष का चातुर्मास वर्षायोग विगत वर्षों से हटकर कई विशेषताएं लिए हए है।