रानी लक्ष्मीबाई
वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई का जन्म कार्तिक द्वितीया को १६ नवम्बर १८३५ में पिता मोरोपंत और माता भागीरथबाई के घर हुआ था। कन्या का नाम 'मनु' रखा गया। मन जब चार वर्ष की थी तभी उनकी माता स्वर्ग सिधार गयी।
बचपन में बिठूर में ही नाना साहेब के साथ तलवार चलाने, घुड़सवारी करने और बंदूक चलाने का भी प्रशिक्षण लिया। सन १८४२ में झाँसी महाराज गंगाधरराव के साथ मनु का विवाह कर दिया। अब वह झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गयी।
सन् १८३८ में ही अंग्रेजों ने गंगाधरराव को झाँसी का राजा घोषित किया था। सन् १८५१ में लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया जो तीन माह बाद ही गजर गया। अंग्रेजों ने पराजित राजाओं पर शर्त लगा दी कि निःसंतान राजा लड़का गोद नहीं ले सकते, उन्हें शासन का अधिकार नहीं होगा।
सन् १८५३ में गंगाधरराव ने आनन्दराव नामक बालक को गोद लिया, जिसे आगे दामोदरराव कहा गया। राजा ने लार्ड डलहौजी को मेजर एलिस के माध्यम से गोदनामा की अनुमति के लिये निवेदन पत्र भेजा। कुछ दिनों बाद २१ नवम्बर १८५३ को महाराजा गंगाधरराव का दुःखद निधन हो गया, जब रानी १८ वर्ष की थी। डलहौजी राज्य को हड़पना चाहता था।
मार्च १८५४ में अनुमति पर उत्तर आया जिसमें लिखा था स्वर्गीय गंगाधरराव के उत्तराधिकारी पुत्र को कम्पनी सरकार मान्यता नहीं देती। अतः झाँसी को ब्रिटिश प्रान्तों में विलीन किया जावे। रानी को किला खाली कर देना चाहिए, उन्हें पाँच हजार रुपये मासिक पेंशन दी जायेगी।
पत्र पढ़कर रानी ने कहा - "नहीं, असंभव, मैं अपनी झाँसी नहीं दूगी।" १६ दिसम्बर १८५७ को अंग्रेज सेनापति सर ह्युरोज ने अचानक सवेरे सात बजे झाँसी के किले पर हमला बोल दिया। रानी के किले की गरगज, कड़क बिजली, घनगर्ज और भवानीशंकर तोपें गोले बरसाने लगीं।
सेना के अभाव और गद्दारों के प्रभाव के कारण रानी कुछ सैनिकों को लेकर किले से बाहर मर्दाने सैनिक के वेश में काठियावाड़ी श्वेत घोड़े पर सवार होकर भाण्डेर और वहाँ से एक सौ दो मील चलकर कालपी पहुंची।
वहाँ भी स्वतंत्रता की ज्वाला सुलगा दी। नानासाहेब से रानी का यहीं मिलन हुआ तब उन्होंने प्रतिज्ञा ली कि “मेरी तलवार शत्रओं के विनाश और हिन्दस्तान की मर्यादा रखने के लिए सदा उठी रहेगी।" अंग्रेजों द्वारा कालपी फतह के कारण रानी व राव साहेब ग्वालियर की तरफ चल पड़े।
ग्वालियर के राजा जयाजीराव सिंधिया अंग्रेजों के मित्र और सहायक थे उनके ऊपर रानी लक्ष्मीबाई, तात्याटोपे और नानासाहेब ने छोटी सी सेना लेकर आक्रमण कर दिया। राजा की सेना ने तात्याटोपे का साथ दिया। ग्वालियर पर अधिकार हो गया। राजा भाग खडा हुआ। आगरा में अंग्रेजों के संरक्षण में प्राण बचाये।
लेकिन दिनकरराव जो ग्वालियर का दीवान था, अंग्रेजों से मिल गया। इधर कर्नल स्मिथ की सेना ने किले के ऊपर रानी पर आक्रमण कर दिया। आक्रमण इतना भीषण था कि इसके पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। घोडे की लगाम मुँह में दबाये रानी दोनों हाथों से तलवार चलाती हुई आगे बढ़ी। शत्रु के घेरे को तोड़कर आगे बढ़ी।
कुछ पठान, सरदार, रघुनाथसिंह और रामचन्द्र देशमुख उनके साथ हो चले। रानी के शरीर से खून की धारा बह रही थी। दो ब्रिटिश सैनिक रानी का पीछा कर रहे थे, रानी ने दोनों को मार दिया। स्वर्ण रेखा नदी पार कर रही थी कि ब्रिटिश सैनिक के बंदूक की गोली रानी की जंघा में लगी लेकिन रानी ने उस सैनिक को मार डाला।
रानी के घोड़े ने भी सहायता नहीं की। रघुनाथसिंह ने सोचा कि रानी को शीघ्र लेकर गंगादासजी के मठ में पहुँचना चाहिए। पुत्र दामोदर को घोड़े पर बैठाया और घायल रानी को गोद में बिठाकर गंगादास के बगीचे में पहुँचे।
संत ने रानी को पहचान लिया। रानी का मुँह धोकर गंगाजल पिलाया। रानी के अंतिम शब्द थे “ग्लेच्छ मुझे जीवित न पकड़ सकें और न मरने के बाद ही पकड़ने पायें। हर-हर महादेव" और भगवत् गीता के ये अंश 'वासुदेव मैं आपके सामने नतमस्तक हूँ' कहकर १८ जून १८५८ की काली रात में २२ वर्ष ७ माह जीवित रहकर कराल काल के गाल में समा गयीं। रह गयीं केवल वीरता की कहानियाँ । “बुन्देले हर बोलों के मुँख हमने सुनी कहानी थी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।"