भक्त प्रहलाद
भक्त प्रहलाद का जन्म दैत्यराज हिरण्यकश्यप व माता कयाधू के उदर से हआ। अपने पिता के चौथे और सबसे छोटे पुत्र थे। पाँच वर्ष की अवस्था में इनको पढ़ने के लिए पाठशाला में भेज दिया गया।
जहाँ गुरु शुक्राचार्य के पुत्र सण्डा व मर्क सभी बच्चों को पढाते थे। प्रह्लाद के गुरु द्वारा यह समझाने पर कि जपने के नाम पर तुम हिरण्यकश्यप का नाम ही जपो तब भी प्रह्लाद नारायण का नाम ही जपता था।
तभी गुरु पुत्रों ने राजा से सारी बात कह समझायी। राजा ने प्रह्लाद को अपनी गोद में बिठाकर समझाया तब प्रह्लाद ने भगवान की भक्ति का सार अपने पिता को बता दिया।
तब डाँटकर दैत्यराज ने कहा मूर्ख बालक जानता नहीं तू! उस नारायण ने तेरे चाचा हिरण्याक्ष का वध किया है अतः वह हमारा शत्रु है। उसका नाम लेना छोड़! तब भी प्रह्लाद ने भगवान् की ही महिमा पिताजी को बतायी।
तब क्रोधित होकर दैत्यराज ने प्रह्लाद को मारने की आज्ञा दे दी। दैत्यों ने तलवार, तीर, त्रिशूल व गदा से मारा जब कुछ न बिगड़ा तब पर्वत की चोटी से नीचे धकेल दिया। फिर सों से कटवाया। फिर लकड़ियों के बीच बिठाकर आग लगवा दीपरन्तु नारायण की कृपा से उसका बाल भी बाँका न हुआ।
सण्डा व मर्क को बुलाकर पुनः विद्यालय भेज दिया। एक दिन मौका पाकर गुरु पुत्र के अभाव में शाला के सभी दैत्य शिक्षार्थियों को श्रेष्ठ ज्ञान पढ़ा दिया। बालकों ने जब पूछा कि यह ज्ञान तुम्हें कहाँ से मिलता है तो प्रह्लाद ने कहा कि एक समय मेरे पिताजी तपस्या करने मंदराचल पर्वत पर गये थेतभी इन्द्र ने सभी दैत्यों को मारा और उनकी पत्नियाँ पकड़कर देवलोक में ले गये।
तब रास्ते में नारदजी से भेंट हुई तो इन्द्र से उन्होंने कहा कि हिरण्यकश्यप की पत्नी कयाधू के पेट में एक भक्त बालक पल रहा है जो तुम्हारी सहायता करेगा तब इन्द्र ने मेरी माता को नारद को ही सौंप दिया तब नारदजी ने ब्राह्मण व ऋषियों के आश्रम पर मेरी माता को रखा।
जब वह दुःखी होती थी तब ऋषि संसार की असारता,धर्म का ज्ञान माता को देकर शांत करते थे वह ज्ञान मैने गर्भ में सुना है, जो नारदजी ने दिया है। वही ज्ञान हम तुमको बतला रहे हैं। नारदजी ने कहा था यह ज्ञान इसकी माता को याद न रहकर गर्भस्थ पुत्र को याद रहेगा।
यह सारा ज्ञान साथी बच्चों को दिया और सभी ने वह मान भी लिया। जब गुरुपुत्र लौटकर आये तो देखाकि अभी तक प्रह्लाद अकेला नारायण को जपता था। पर अब तो सभी जप रहे हैं। उनके समझाने पर भी जब कोई नहीं माना तब फिर हिरण्यकश्यप से गुरुपुत्रों ने यथार्थ स्थिति बतायी। तब उसने सोचा इस दुष्ट पुत्र को मैं ही अब अपने हाथों से मारूँगा।
देखता हूँ कौन राम-नारायण इसको बचाता है। तब प्रह्लाद ने पिता से कहा कि पिताजी जो सृष्टि की रचना, पालन और संहार करता है उसकी इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता जिसकी भृकुटि टेढ़ी होने पर संसार का विनाश तय है वही प्रभु है उससे आपको बैर नहीं करना चाहिए।
जब इस प्रकार का ज्ञान दिया तभी दैत्यराज ने कहा बालक अब तेरा काल निकट आ गया हैबता तेरा नारायण कहाँ है ? क्या सामने खड़े खम्बे में भी है? यदि है तो तेरी वह रक्षा करे मैं तुझे अब मारता हूँप्रह्लाद ने नारायण का स्मरण किया तभी भगवान नर और सिंह के रूप में खम्भे में दिखाई देने लगे।
हिरण्यकश्यप ने वह रूप देखते ही उस खम्बे को बायें हाथ से जोरदार मुक्का मारा कि खम्भा फट गया और उस खम्भे के भीतर से भक्त की रक्षा करने के लिए दसयोजन का विशाल शरीर धारण किये बलवानों में श्रेष्ठ नृसिंह भगवान प्रकट हो गये। इनके रूप को देखकर दैत्य घबरा गया क्योंकि ऐसा प्राणी तो कभी देखा तक नहीं था।
क्रोध के मारे भगवान् ने लपक कर ऐसा ललकारा कि ब्रह्मादिक देवता भी गर्जना सुनकर भयभीत हो गयेउसको युद्ध में परास्त कर पकड़ लिया और ड्योढ़ी के दरवाजे पर बच्चे की तरह अपनी जंघा पर रखकर, पूछा क्या मैं ब्रह्मा की सृष्टि का जीव हूँ ? क्या दिन या रात है ? क्या घर के भीतर या बाहर हूँ ? क्या मेरे हाथ में कोई अस्त्र-शस्त्र है? दैत्यराज ने कहा, नहीं। जिसके शरीर से टकराकर गदा टूट गई थी ऐसे कठोर शरीर नृसिंह भगवान ने भक्त की रक्षा के लिए एक क्षण में नाखूनों से चीर कर मार डाला और उसकी आंतड़ियाँ अपने गले में माला की तरह डाल ली और राजसिंहासन पर जा बैठे। उग्र क्रोध को देखकर ब्रह्मादिक देवता ही नहीं स्वयं लक्ष्मी भी पास जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहीं थीं।
ब्रह्मा, महादेव आदि देवताओं ने विचार किया कि प्रह्लाद के लिए ही इनका अवतार हुआ है। इसलिये प्रह्लाद को भेजना ठीक है। तभी सभी ने प्रह्लाद को नृसिंह का क्रोध शांत करने को कहा। प्रह्लाद ने नृसिंह के चरणों में सिर रखकर स्तुति की।
तो उन्होंने प्रेम से उठाकर प्रह्लाद को गोदी में बैठा लिया। प्रेमपूर्वक उन्हें चाटने लगेभक्त क्या चाहिए? भगवान् बोले। तब प्रह्लाद ने कहा कि प्रभो पहले तो अपना क्रोध शांत कीजिए। मुझे जन्म-जन्मान्तर तक आपके चरणों में भक्ति व नाम स्मरण बना रहे। मुझे किसी वस्तु की चाह न रहे तथा पिता ने आपसे बैर किया है वह नरक गया होगा प्रभु उसे वहाँ से निकाल लीजियेतब भगवान् ने कहा कि प्रह्लाद जहाँ तेरे जैसा भक्त पैदा हुआ वहाँ २१ पीढ़ी स्वर्ग में चली गयी।
तुम मेरी आज्ञा से इकहत्तर चतुर्युगीं तक इस पृथ्वी का शासन करोगे। हिरण्यकश्यप का श्राद्ध करने के पश्चात् नृसिंहजी ने प्रह्लाद को राजसिंहासन पर बैठाकर तिलक लगाया और ब्रह्मा से कहा कि अब ऐसा वरदान किसी को नहीं देना। प्रह्लाद गुरू शुक्राचार्य पुरोहित का विधिपूर्वक पूजन कर हरि चरणों को स्मरण कर धर्म के साथ प्रजा पालन करने लगे। दृढ़ भक्ति ओर कठोर संकल्प के द्वारा अजन्मा परमात्मा को नृसिंह के रूप में प्रकट करवाकर “मो में, तो में, जग संसार में, खरिक खंब में छायो के ना" का प्रत्यक्ष दर्शन करा दिया।