नवधा भक्ति : राम और लक्ष्मण के प्रति शबरी के आतिथ्य
प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के 9 प्रकार बताए गए हैं जिसे नवधा भक्ति कहते हैं।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरण पादसेवनम। अर्चनं वन्दनं दास्य सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा)- इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।
श्रवण- ईश्वर की लीला, कथा, महत्व, शक्ति, स्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना।
कीर्तन- ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना। स्मरण- निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना।
पाद सेवन - ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना। अर्चन- मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।
वंदन - भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।
__ दास्य- ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।
सख्य - ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।
आत्मनिवेदन- अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई है।
1-श्रवण-2-कीर्तन-3-स्मरण-4-पाददेवा-5 अर्चन-6-वन्दन-7-दास्य-8-सख्य-9 आत्मनिवेदन॥
1-श्रवण-- जब मैं अपने से अपने मैं यानि जिससे प्रेम करता है। उसकी वार्ता को पूरे मन से सुनता है। कि मैं कौन हूँ? ओर ये कौन है? ओर मैं इससे क्यो प्रेम करता हूँ? और मेरा सच्चा उदेश्य क्या है? इसे आपस में बेठ कर मिलकर केसे प्राप्त करे? ये सब एक दूसरे से कहना व सुनने की एकाग्र अवस्था को ही भक्ति में प्रश्रवणफ नामक प्रेम की प्रथम अवस्था कहते है। इस श्रवण से अन्तर्वाणी,अनहद नाद कि प्राप्ति होती है, व मंत्र सिद्धि की प्राप्ति होती है।
2-कीर्तन- मै जब अपने दूसरे प्रेमिक मैं के साथ जीवन जीने का उद्देश्य जानता है। तब उस उद्देश्य अर्थात आनन्द कि प्राप्ति ही हम दोनो मैं का आदि व अन्तिम उद्देश्य है। इस मे निगमन होकर जो आनन्द प्राप्त करता है। उसका निरन्तर अपने कान से ले कर पाँच इंद्रियों द्वारा श्रवण-मनन कि पुनरावर्ति ही के सात वचन के सत्य स्वरुपो का गणगान ही कीर्तन नामक प्रेम भक्ति की दूसरी अवस्था है।इस कीर्तन से राग प्रेम कि आठ अवस्था -1-स्तम्भ-2-स्वेद-3-रोमांच-4-स्वर भंग-5-कम्प6-वैवव्य-7-अश्रु-8-प्रलय, कि प्राप्ति होती है। ओर प्रेम प्रगाढ़ होता है।
3-स्मरण-- मै अपने और अपने दूसरे मै का मूल उद्देश्य क्या है? जो एकाकार हो कर प्रेमात्मसाक्षात्कार है। उसका निरन्तर श्रवण मनन कीर्तन से पुनरावर्ति करते रहने का नामस्मरणफ नामक प्रेमा भक्ति की तीसरी अवस्था है। इस स्मरण से दो प्रेमिक फमैफ एकाकार होते चलते है। ओर दो मन यानि इग्ला व पिग्ला रूपी सूक्ष्म स्त्री-पुरुष रुपी प्रेमी का मिलन से कुण्डलिनि जाग्रत होती है। इससे आत्म ज्ञान मे सत्य प्रेम क्या है? ये ज्ञान होता है।
4-पादसेवा-- मै अपने को व्यक्त करने वाले इस शरीर के समस्त अंग-पांचों इन्द्रियो व दसो प्राणो के द्वारा अपने दूसरे 'मैं' यानि जिससे मैं प्रेम करता हूँ कि- उसकी अह- रहित सेवा करना ही पादसेवा नामक प्रेम की चौथी अवस्था कहलाती है। यहाँ दोनो को ऐसा ही एक दूसरे के प्रति करना है।यहाँ पादसेवा का अर्थ- दूसरे के चरणों कि सेवा करना नही है। बल्कि 'प' माने प्राण यानि अपने सारे प्राणो से करना है। 'आ' माने आवरण यानि कि- ये दसो प्राणो को धारण करने वाला शरीर से है।और 'द' माने दाता देने वाला व दे कर ग्रहण करने वाला भी मैं ही हूँ।यो दोनो ओर मैं ही प्रेमी व प्रेमिका हूँ। ये भेदाभेद में अभेद स्थिति के पाने का नाम ही पादसेवा नामक पांचवी प्रेमा भक्ति अवस्था है।
5 -अर्चन-- मैं आत्मा ओर उसका दूसरा अर्द्ध शक्ति मैं, जो दूसरी प्रेमिक आत्मा है। ये दोनो मैं के लिये है कि- हम प्रेम करने वाले एक आत्मा है। तो दूसरा मैं पहली मैं रूपी आत्मा की आत्म शक्ति है। तभी दो मैं एक हम बनकर एक दूसरे के प्रेम पूरक है।यही मैं (आत्म) का मैं(शक्ति) द्वारा निरन्तर आत्म मॅथन यानि खोज करने की क्रियात्मक आचरण को ही अर्चन नामक प्रेमा भक्ति की छठी अवस्था कहते है।इसे सामन्य शब्दो मे कहे, तो मैं का अपनी ही आत्मशक्ति के द्वारा अपनी ही उपासना करना अर्चन कहलाता है।और ये अर्चन अपने समस्त अंगो के द्धारा आचरित करते हुये, अपने दुसरे मैं को प्रेम समर्पित करता है।और अपने को दूसरे 'मैं' के साथ अपने समस्त अंगो के साथ एकाकार कर, जो आत्म मैथित करना यानि एकाकार होने की क्रिया करना व उस मॅथित क्रिया कर जो आनद की उपलब्धि पाता है।उसी का नामान्तर नाम अर्चन है। इससे दोनो मैं को एक दसरे के प्रति सारे अंगो के सम्पूर्ण समर्पण होने के तीर्व कारण से, जो सम्पूर्ण शरीर मे मैंयकर आनद का आवेग का कॅम्पन बनता है।और उससे जो उनके शरीर मे नीचे से ऊपर व ऊपर से नीचे कम्पन ती गति करता है। तब इस अनुलोम-विलोम होती क्रिया से श्वासो की गति बढ़ जाने पर स्वयं ही दोनों के शरीर में सच्चा आन्तरिक प्राणायाम होता है। इसे ही कम्प नामक प्रेम भक्ति का सकार कहते है। अत: इस कम्प प्राणायाम से दोनो मैं के अनमय शरीर यानि बाहरी शरीर व आतरिक शरीर यानि प्राणमय शरीर का शोधन हो कर कुण्डलिनि का जाग्रण प्रारम्भ होता है।
6-वन्दन- मै आत्मा अपनी दूसरी आत्म प्रेमिक शक्ति में से मिलकर जो आन्नद इच्छा से जो आनद क्रिया करता हुआ, उस प्राप्त आन्नद आवेश से जो परस्पर आनद प्राप्त करते है।उसे एक साथ एक दूसरे के साथ आनन्द से मनाना ही,एक मै का दूसरे मैं के लिए वन्दन नामक प्रेम की सातवी प्रेमा भक्ति अवस्था कहलाती है। अर्थात अपनी ही अपने द्वारा अपने प्रेमिक मैं की वन्दना करना वन्दन अर्थ है।यानि यहां दोनों प्रेमिक मैं को एक होते हुए भी एक दूसरे से स्वतंत्र रूप में भिन्न भी और एकाकार रूप में भी, मैं ही सत्य स्वरुप नित्य आत्मा हूँ।यह आत्म अनुभव होता है।और यही सच्चा प्रेमिक आत्मवन्दन कहलाता है। तब इस अवस्था की क्रिया से वैवयनामक छटा सुकार प्राप्त होता हैअर्थात मैं का दूसरे मैं से पूर्ण आन्तरिक व बाहरिक एकाकार अवस्था का जब परस्पर अनुभव होने लगता है, कि- वो मैं एक हैतब एक अदभुत अवस्था का उदय होता है। जिसे एकाकी होना कहते है।तब वो एकांत मे भी दूसरे का एकत्य यानि वो और मैं एक है,का दिव्य अनभव करता हुआ अपने आपे में ही केन्द्रित रहता है।वो अब बिना किसी के एकांत में भी एकाकी होते हुए भी अकेला अनुभव नहीं करता है।तब उसके जीवन मे एक स्थिरता सी आ जाती है। इसे ही योग भाषा मे आसन कि प्राप्ति व आसन सिद्धि कहते है। वो अपने प्रेमी या प्रेमिका के किसी भी कर्म और व्यवहार से कभी विचलित नही होता है। यही अविचलन अवस्था का नाम वैवय नामक प्रेमा भक्ति की दिव्य अवस्था कहालाती है।यहाँ-वैका अर्थ है-विश्व व का अर्थ है विस्मत और व का अर्थ है-व्यक्त ओर र का अर्थ है-रति या आत्म आनद से रमित होना और य का अर्थ है उर्धव होना।अत; सारा अर्थ ये कहेंगे कि- दोनो मैं के अन्तर और बहिर एकाकार अवस्था से उत्पन रति क्रिया से प्राप्त आनद के कारण, ये जगत विश्व को अपनी व्यक्त प्रेम अवस्था से विस्मर्त(भूल)कर, अपनी प्राप्त उध्व आनद अवस्था मे स्थिर व स्थित रहना ही वैवय कहलाता है। इससे कुण्डलिनी शक्ति कँठ चक्र मे प्रवेश करती है।
7-दास्य-- जब दोनों में ही अपने आनन्द की प्राप्ति हेतु अपनी ही द्वैत शक्ति-प्रेमी या प्रेमिका से निम्न और मिन भी हूँ,अर्थात में छोटा होकर सेवक होकर ही प्रेमानन्द प्राप्त कर सकता हूँ।यहाँ मै का प्रेम भाव दास्य भाव है।तब इस भाव के प्रभाव से शरीर पर नेत्रों के माध्यम से जो पदार्थ निकलता है।एक बिना प्रयत्न के मात्र आभाव की द्रढ़ता से निकलने वाले गर्म आँशुहोते है।और जो आत्म आनन्द के कारण आँखों के बहिर कोना से आशु निकले यानि वे ठंडे अश्रु कहलाते है।इन ठंडे आंशओं से पर्ण तप्ति का दिव्य अनभव मिलता है।ऐसी अवस्था में कुंडलिनी शक्ति के प्रभाव से दोनों भाव जगत यानि चित्त और चिद्ध आकाश में प्रेम का अद्धभुत दृश्य दर्शन होने लगता है।यहाँ प्रेम की जो इच्छा थी उसे शक्ति की प्राप्ति होती है और परिणाम बिना प्रयास के ही प्रेम दर्शन होने लगते है।यहीं सभी प्रकार की घृणा विकार मिटकर केवल निस्वार्थ सेवा का सुकार की प्राप्ति होती है। और यहां आनन्द समाधि की प्राप्ति और उसमें स्थिरता की प्राप्ति होती है।
8 सख्य-- इस अवस्था में आकर, अपने अपने मैं के रूप में दोनों प्रेमी और प्रेनिका ही अपनी आत्मशक्ति अर्थात अपने जैसा दूसरा स्वरूप प्रेमी व् प्रेमिका या सखा सहेली के साथ आनन्द युक्त हूँ.. ऐसा दिव्य अनुभव होता है।तथा हमें नित्य एक दूसरे की उपस्थिति सहयोग की परमवश्यकता है,वो मेरे बिना कछ नहीं है और मैं उसके बिना काछ नही हैं।यही अपने हृदय में समान रूप से निरन्तर धारण किये रखना ही सख्य नामक प्रेमा भक्ति की तना ही सरला नामक पेमा भक्ति की पंद्रहवी अवस्था कहलाती है।तब कुंडलिनी शक्ति आज्ञाचक्र पर पहुँच कर मैं के लय का अनुभव समान रूप से करती है।यही भेद रहित अभेद प्रेम समाधि की प्राप्ति होती हैऔर अहंकार नामक विकार बदलकर प्रेमाकार सदाकार सुकार व एकल युगल दर्शन और सविकल्प समाधि का अंत और निर्विकल्प समाधि की प्राप्ति होती है।यानि तब दोनों के शरीर में भेदाभेद अर्थात पर का भाव समाप्त हा जाता है।तब इसी प्रेम शरीर के एकीकरण को प्रलय नामक सुकार भाव की दिव्यता प्राप्त होती है।यहां 'पर' यानि दूसरे के होने के सभी भावों की समाप्त हो जाती है और अपने अंदर से लेकर सभी जगत में उसे केवल एक ही है,की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है।की-कोई दूसरा नहीं है.जितने भीप्रकार के भेद और भिन्नताएं है,उनका स्रोत स्वयं में ही प्रत्यक्ष अनुभव होता है और उस अवस्था पर विज्ञानवत अधिकार भी होता है।
9-आत्म निवेदन- जब दोनों मैं यानि एक आत्मा पुरुष और एक आत्मा शक्ति स्त्री परस्पर प्रेमानन्द हेतु एक समान प्रेमाइच्छा की एक दूसरे से प्रस्तुति करते है,की-अब हमें प्रेम या आत्म उपलब्धि चाहिए।वेसे यहां ये चाहत प्राप्ति आदि सब शब्दावली और अभिव्यक्तियाँ विलय यानि समाप्त हो जाती है।केवल रह जाता है जो एकल अनुभूत दर्शन हो रहे है,उसमें अभी जो दो की अनुभूति हो रही है की-एक मै में दसरा मै प्रलय कर एक है,ये बैत अनभति को मिटाने की स्थिति का आत्म इच्छा होना की-अब एक ही रहे कोई दूसरा नहीं रहे।यहाँ दूसरे की समाप्ति की इच्छा नहीं की जा रही है।बल्कि वो भी मैं ही हूँ,का पक्का बोध का आत्म प्रयास का होना है।यहीं आत्म आनन्द की एक ही मे समान इच्छा आत्मनिवेदन नामक प्रेम की सोलहवी दिव्य अवस्था कहलाती है।यहाँ पर शरीरप्राण-मन-विज्ञानं यानि काल और क्षण सब समाप्त हो जाते है।और एक मात्र दोनों के एक होकर चैतन्य बोध यानि हूँ का शेष रह जाना घटित होता है।और यही एक मात्र शेष प्रेमवस्था ही भक्ति नामक दिव्य अवस्था की प्राप्ति होती है।जिसका एक मात्र परिणाम होता है प्रेम। यहीं निर्विकल्प समाधि घटित और स्थिर होती है।पर कोई भी अवस्था स्थिर नहीं है।और जो नित्य स्थिर है और एक प्रेम बीज के रूप में पुनः प्राप्ति होती है।जिसे वेद शून्य अवस्था कहते है,की जब न कोई सत् था नअसत् था।केवल एक चैतन्य शून्य था।और यही वह अनादि और शाश्वत ईश्वर है। और इसी प्रेम बीज से पुनः दोनों 'मैं' यानि मैं स्त्री और मैं पुरुष का पुनर्जागरण होता है|जिसे वेद एकोहम् बहुस्याम यानि एक से अनेक हो जाऊ का विस्फोटक घोष हुआ और पुनः सृष्टि का प्रारम्भ हुआ। यही प्रेम की सोलह कला ही प्रेमपूर्णिमा कहलाती है।जिसे प्रत्येक प्रेमी और प्रेमिका अपने दैनिक जीवन में इसी क्रम से अपना कर दिव्य प्रेम की जीवन्त प्राप्ति कर जीवंत आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति करता है।