भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त श्रीहनुमान्जी

हनुमानजी



भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त श्रीहनुमान्जी का जन्म, कर्म और नाम संसार के सभी अमंगलों का नाश करने वाला है। एक समय पुंजिकस्थला नाम की अप्सरा श्राप के कारण वानरराज कुंजर की पुत्री अंजना के रूप में भूतल पर अवतीर्ण हुई जो इच्छानुसार रूप धारण करने वाली अत्यन्त सुन्दर थी। वह वानरराज केसरी की पत्नी हुई। एक दिन अंजना मानवी रूप धारण कर माल्यवान पर्वत पर खड़ी थी तभी वायु देवता ने कहा, देवी मैने अव्यक्त रूप से तुम्हारा आलिंगन करके मानसिक संकल्प के द्वारा तुम्हारे साथ समागम किया है। इससे तुम्हें बल सम्पन्न, बुद्धिमान पुत्र प्राप्त होगा जो मेरे ही समान होगा। माँ अंजना ने एक गफा में जाकर कार्तिक कृष्णपक्ष चतुर्दशी को पुत्र के रूप में स्वयं भगवान् शिव ही अवतरित हुए। एक समय जब सब देवता श्रीराम के कार्य में सहायक होने के लिए जन्म ले रहे थे तभी ब्रह्माजी के निवेदन करने पर भगवान् शिव ने भी हनुमान् के रूप में अंजना केसरी के यहाँ आने का वचन दिया था। “आत्मा वै जायते पुत्रः', “शंकर सुवन केसरी नन्दन", "अंजनी पुत्र पवन सुत नामा” (तुलसीदासः हनुमान चालीसा) अपनी बाल्यावस्था में ही एक दिन उदित हुए सूर्य को फल समझ कर खाने की इच्छा से सूर्य के पास निगल जाने की इच्छा से जाते देख इन्द्र ने वाम हनु में वज्र का प्रहार किया तभी से हनुमान नाम पड़ गया। प्रहार से कुपित हो वायु देवता ने तीनों लोकों में प्रवाहित होना बंद कर दिया जिससे हाहाकार मच गया। तदन्तर उपस्थित हो ब्रह्माजी ने कहा कि इस बालक को ब्रह्मपाश बांध न सकेगा। इन्द्र ने कहा, मृत्यु तुम्हारे अधीन होगी। वरुण ने कहा, हमारे जल में यह डूबेगा नहीं, यम ने कहा हमारा कालपाश इसे मार न सकेगा, सूर्य भगवान् ने सम्पूर्ण विद्या दी। सभी देवताओं ने अपनी-अपनी प्रधान शक्ति हनुमानजी को दी। तुलसीदास ने सुन्दरकाण्ड में लिखा है “अतुलित बलधामं हेमशैलाभदेहं, दनुज वनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् । सकल गुण निधानं वानराणामधीशं, रघुपति प्रियभक्तं, वातजातं नमामि" किष्किन्धा में रहकर भगवान् श्रीराम से कपि श्रेष्ठ सुग्रीव की


मित्रता कराकर रावण द्वारा अपहत सीता की खोज में सौ योजन दुस्तर समुद्र लांघकर सीताजी से मिल श्रीराम को उनके लंका में होने की सूचना दी। नटखट बाल हनुमान को ऋषियों ने अपनी शक्ति भूलने का श्राप दिया था पर जब कोई याद दिलायेगा तो याद आ जाएगी। समुद्र किनारे जब जामवंत उन्हें उनका जन्म "राम काज लगि तव अवतारा" याद दिलाते हैं तब वही निर्बल की तरह चुपचाप बैठने वाले हनुमानजी कहने लगते हैं --लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा" इस खारे समुद्र को निगल जाऊँ या लांघ जाऊँ। "सहित सहाय रावनहि मारी। आनहुँ इहाँ त्रिकूट उपारी।" (रामचरित मानस किष्किन्धा काण्ड) रावण को सेना सहित मार डालूँ या त्रिकूट पर्वत जिस पर लंका बसी है उसे ही उखाड़ कर यहाँ ले आऊँ। ये कार्य किसी भी दूसरे के लिए असम्भव हैं। रावण जैसे वीर के घर में घुसकर उसके पुत्र सहित सेना का संहार कर सोने की लंका जला दी। अंगद से जब रावण की वार्ता दूत के नाते होती है तब रावण कहता है तुम्हारे दल में एक वानर जरूर बलवान है “आवा प्रथम लंक जेहि जारा।" ऐसा कहकर प्रशंसा करता है। देवता भी जिस रावण के आगमन को सुन भाग जाते थे उससे युद्ध करने “धाये हनुमान गिरि धारी" पर्वत लेकर दौड़ते हैं और "रथ तुरंग सारथी निपाता। हृदय माझ तेहि मारेसि लाता।। रथ, घोड़े और सारथी का संहार कर रावण के सीने पर लात मारी। युद्ध में लक्ष्मण का बचाव करते समय रावण ने एक मुष्टिका का प्रहार किया तब "जानु टेकि कपि भूमि न गिरा। केवल घुटने जमीन पर टेके हनुमानजी जमीन पर नहीं गिरे; पर खड़े होकर "मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा।। रावण को एक घूसा मारा। वह ऐसा गिर पड़ा जैसे वज्र की मार से पर्वत गिरा हो। (लंकाकाण्ड : रामचरित मानस) सीता अशोक वाटिका में जब हनुमानजी को राम भक्त जान लेती है तब “आशिष दीन्हिं राम प्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना ।। “अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहिं बहुत रघुनायक छोहू ।। सीता उन्हें कहती कि तात! तुम बल और शील के निधान हो, अजर, अमर गुणों की खान हो। जाओ, रघुनाथजी तुम पर कृपा करें। इन सभी वरदानों में हनुमानजी ने तो केवल एक ही वरदान सुना वह “करहिं कृपा प्रभु सुनि अस काना।" कि भगवान मुझ पर कृपा करेंगे। उन्हें न तो किसी गुण की न किसी वरदान की आवश्यकता है। उन्हें चाहिए केवल राम कृपा-भक्ति। न तो उन्हें बल और शील और न अजर-अमर के वरदान की खुशी है। खुशी है तो इस बात की कि प्रभु मेरे ऊपर कृपा करेंगे। अशोक वाटिका से पकड़कर मेघनाद जब रावण के पास लंका में हनुमानजी को ले जाता है तो पूछता है “हे वानर तू कौन है ? किसके बल पर तूने वन को नष्ट कर दिया ? क्या तूने मेरा नाम और यश कानों से नहीं सुना ? तूने किस अपराध से इन राक्षसों को मारा ? क्या तुझे प्राणों का भय नहीं ?" रावण पाँच प्रश्न पूछता है। अनामी रहने के स्वभाव वाले हनुमान् अपना नाम न बताकर सभी प्रश्नों का उत्तर देकर अंत में कहते हैं “जाके वाल लवलेस ते, जितेहु चराचर झारि । तास दूत मैं जा करि, हरि आनेउ प्रिय नारि ।। मैं तो उस प्रभु का दूत हूँ। आद्य शंकराचार्य कहते हैं “दारितदशमुखकीर्तिः पुरतो मम भातु हनुमतो मूर्तिः' अर्थात् दशवदन रावण की कीर्ति को मिटाने वाली हनुमानजी की मूर्ति मेरे सामने प्रकट हो। (हनुमान अंक-५) सीता की सुथि रामजी को देने के बाद श्रीराम कहते हैं “सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।। प्रति उपकार करौं का तोरा। सन्मुख होइ न सकत मन मोरा।(राम.मा. सुन्दरकाण्ड) हनुमान् तुम्हारे समान मेरा उपकारी देवता, मनुष्य अथवा मुनि कोई भी शरीरधारी नहीं है। मैं तेरा प्रत्युपकार (बदले में उपकार) तो क्या करूँ मेरा मन भी तुम्हारे सामने नहीं हो सकताराम भी जिनके ऋणी हो जायें “सुनु सुत होहुँ उरिन मैं नाहीं।" ऐसे हनुमान जी की कौन वंदना नहीं करना चाहेगा"महावीर विनवउँ हनुमाना। राम जासु जसु आप बखाना।। महर्षि अगस्त्य से श्री राघवेन्द्र कहते हैं “यद्यपि बाली और रावण में अतुल बल था, तथापि मेरी समझ में ये दोनों भी हनुमानजी के समान न थे। (वा.रा. -७/३५/२-१०) पृथानन्दन अर्जुन के रथ के रथकेतु पर जिनकी विकराल मूर्ति विराजमान है ऐसे हनुमानजी की जय हो।